Tuesday 17 January 2017

चिठ्ठी आई हैं ...

मैं किसीका अनुयायी नहीं हूँ। विवेकानंद मेरा पहला प्यार जरूर हैं लेकिन आदर्श नहीं। सच तो यह हैं के उन्हीने मुझे बताया, गुलाब गुलाब हैं, लिली लिली हैं और कमल कमल हैं। ना ही गुलाब को लिली बननेकी जरुरत हैं या उसे बनना चाहिए ना ही कमल को गुलाब। विकेकानंद से रुबरु होने के पश्चात मैंने कई विचारकोंसे परिचित होने का प्रामाणिक प्रयास किया हैं; मिसाल के तौर पर कार्ल मार्क्स, मो क गांधी, डॉ आंबेडकर, मा स गोलवलकर, विज्ञानानंद,ओशो, जे कृष्णमूर्ति इत्यादि। चूँकि वे वे हैं और मैं मैं हूँ, 'अनुयायी' मैं किसीका भी नहीं हूं। मगर हाँ, इन सभी के विचारोंमे जो मुझे अच्छा लगा उसे मैंने अपने जीवन में आचरित किया हैं। 

यह सब मैं क्यों कह रहा हुँ? कुछ ही दिन पूर्व, केविआईसी के कैलेंडर पर श्री गांधी का छायाचित्र न होने और प्रधानमंत्री मोदी का होने को लेकर विवाद छिड़ा था। यहाँ मैं उसपर टिपण्णी नहीं करूँगा। उस विषय को लेकर मेरे विचार आप मेरे फेसबुक पोस्ट में पढ़ सकते हैं। उससे जुड़े एक पहलु की ओर मैं आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहूंगा। 

आश्चर्य मुझे इस बात से हुआ के श्री गांधी के कुछ तथाकथित अनुयायी उस घटना के चलते बेहद व्यथित नज़र आए। यहाँ मैं जानबूझकर श्री गांधी के लिए महात्मा शब्द का प्रयोग नहीं कर रहा हूँ तथा उन अनुयायियोंके लिए तथाकथित शब्द का प्रयोग कर रहां हूँ। कारण कुछ इस प्रकार हैं। '

मेरा मानना हैं के श्री गांधी जैसा अत्यंत सादगीपूर्ण जीवन व्यतीत करनेवाला एवं हर एक व्यक्ति के लिए समान आस्था रखनेवाला सच्चा इंसान स्वयं को महात्मा कहलवाना कदापि पसंद नहीं करेगा। महात्मा कहते ही अनिवार्य रुप से आत्मा, हीनात्मा जैसे शब्दोंका बोध होता हैं। जो इंसान हमेशा इस बात पर ज़ोर देता रहा के पाप से घृणा शायद की भी जा सकती हो लेकिन पापी से कतई नहीं, क्या वह स्वयं को औरोंसे ऊपर रखना चाहेगा? मुझे नहीं लगता।

श्री गांधी जैसे महामानव के किसी सच्चे अनुयायी का उनके छायाचित्र को लेकर व्यथित होना मेरी नज़र में असंभव हैं। उनके सच्चे अनुयायी के लिए सर्वोपरि होगा उनकी दी गई सीख पर अमल करना। छायाचित्र रहे ना रहे, उसके मानस पर श्री गांधी की छबि अक्षुण्ण रहेगी। 

बात केवल श्री गांधी के तथाकथितअनुयायियोंकी नहीं हैं। सभी महानुभवोंके साथ यह होता रहा हैं। उनमें आस्था और निष्ठा रखनेवाले अक्सर उनका जीवन गौरव करते देखे जाते हैं लेकिन जीवन को उनकी दी गई सीख में ढालकर उसे गौरवान्वित करनेवाले बिरले ही होते हैं।

क्षमा करें, अगर कोई वर्तमान समय की जरूरतों, मुसीबतों, परेशानियों, जिम्मेदारियों या फिर 'प्रैक्टिकल' होने का हवाला देकर अपने आदर्शों से मुंह मोड़ रहा हो तो उसकी आस्था और निष्ठा दो कौड़ी की भी नहीं हैं। 

मेरे देखे, तथाकथित धार्मिक लोगों में और तथाकथित अनुयायियोंमे कोई बुनियादी भेद नहीं हैं। इन्होंने बस श्रीराम और श्रीकृष्ण की जगह मार्क्स और गांधी को रखा हैं या फिर विवेकानंद और डॉ आंबेडकर को। काम सभी का एक ही हैं; बस नाम में उलझे रहो और सीख तथा आदर्शोंका काम तमाम!

श्री रामकृष्ण, विवेकानंद के गुरु, एक दृष्टान्त दिया करते थे। वह इस विषय पर सटीक होगा। वे कहते थे; हमें किसी करीबी व्यक्ति से कोई चिट्ठी गांव से आए और पढ़ने से पहले ही वह कहीं खो जाए तो हमारा हाल क्या होगा? हम उसे यहाँ वहाँ ढूंढेंगे। पूरा घर उलट-पुलट कर देंगे लेकिन उसे ढूंढकर रहेंगे। अगर चिट्ठी में लिखा हो, फलां फलां आदमी गांव आ रहा हैं। उसके हाथों एक धोती और आधा किलो घी भिजवा देना। चिट्ठी का मतलब समझते ही उसकी कीमत खत्म हो जाती हैं। जिसे ढूंढने के लिए थोड़ी ही देर पहले हम शायद दिलो-जान एक कर रहे थे वह अब किसी कोने में पड़ी हो सकती हैं। हम अब जुट जातें अमल करने में। बाजार जाना होगा, चीजें खरीदनी होगी और उन्हें गांव भेजने का प्रबंध करना होगा। 

एक अर्थ में सभी महापुरुष महत्वपूर्ण चिठ्ठियां तो हैं। आप अपनी चिठ्ठी चुन लें और उसमे लिखी बातोंपर अमल करें। उसे बार बार पढ़ने में, सीने से लगाने में या लिखने के अंदाज पर चर्चा करने में कोई सार नहीं हैं।

आप क्या सोंचतें हैं?